आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणाश्रीराम शर्मा आचार्य
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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
गायत्री उपासना के तीन चरण हैं-(1) नित्यकर्म, संध्या-वंदन (2) संकल्पित
अनुष्ठान पुरश्चरण (3) उच्चस्तरीय योग साधना। नित्य कर्म को अनिवार्य धर्म
कर्तव्य माना गया है। आये दिन अंतःचेतना पर वातावरण के प्रभाव से चढ़ते
रहने वाले कषाय-कल्मषों का निराकरण नित्यकर्म से, संध्या-वंदन से होता है।
इससे अधःपतन की आशंका पर अंकुश लगता है।
संकल्पित पुरश्चरणों से प्रमुख चेतना उभरती है और फलतः साधक ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी, बनता है। साहस और पराक्रम की अभिवृद्धि आत्मिक एवं भौतिक क्षेत्र में अनेकानेक सफलताओं का पथ प्रशस्त करती है। विशेष प्रयोजनों के लिए किए गए पुरश्चरणों की सफलता इसी संकल्प शक्ति के सहारे उपलब्ध होती है, जिसे प्रतिज्ञाबद्ध अनुशासित एवं आत्मनिग्रह के विभिन्न नियमोपनियमों के सहारे संपन्न किया जाता है।
नित्यकर्म को स्कूलों की प्राथमिक और पुरश्चरणों को माध्यमिक शिक्षा कहा जा सकता है। जूनियर हाईस्कूल, मैट्रिक हायर सेकेंड्री का प्रशिक्षण माध्यमिक स्तर का समझा जाता है। इसके उपरांत कालेज की, विश्वविद्यालय की पढ़ाई का क्रम आरंभ होता है। इसे उच्चस्तरीय साधना कह सकते हैं। योग और तप इस स्तर के साधकों को क्रियान्वित करने होते हैं। योग में जीव चेतना को ब्रह्म चेतना से जोड़ने के लिए स्वाध्याय मनन से लेकर ध्यान धारणा तक के अवलंबन अपनी मनःस्थिति के अनुरूप अपनाने पड़ते हैं। विचारणा, भावना एवं आस्था की प्रगाढ़ प्रतिष्ठापना इसी आधार पर संभव होती है।
आत्मिक प्रगति के लिए प्रचलित अनेकानेक उपायों और विधानों में गायत्री विद्या अनुपम है। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने, आत्मविज्ञानियों ने प्रधानतया इसी का अवलंबन लिया है और सर्वसाधारणा को इसी आधार को अपनाने का निर्देश दिया है। भारतीय धर्म के दो प्रतीक हैं। शिखा और यज्ञोपवीत। दोनों को गायत्री की ऐसी प्रतिमा कहा जा सकता है, जिसकी प्रतीक धारणा को अनिवार्य धर्म चिह्न बताया गया है। मस्तिष्क दुर्ग के सर्वोच्च शिखर पर गायत्री रूपी विवेकशीलता की ज्ञान ध्वजा ही शिखा के रूप में प्रतिष्ठापित की जाती है। यज्ञोपवीत को गायत्री का कर्म, पक्ष, यज्ञ का संकेत कहते हैं। उनकी तीन लड़ें, गायत्री के तीन चरण और नौ धागे इस महामंत्र के नौ शब्द कहे गये हैं। उपासना में संध्या-वंदन नित्य-धर्म है। वह गायत्री के बिना संपन्न नहीं होता। चारों वेद भारतीय धर्म और संस्कृति के मूल आधार है और उन चारों की जन्मदात्री वेदमाता गायत्री है। वेदों की व्याख्या शास्त्र-पुराणों में हुई है। इस प्रकार आर्षवाङ्मय के सारे कलेवर को ही गायत्रीमय कहा जा सकता है। गायत्री और भारतीय धर्म संस्कृति को बीज और वृक्ष की उपमा दी जा सकती है।
यह सर्वसाधारण के लिए भारतीय संस्कृति के, विश्व मानवता के प्रत्येक अनुयायी के लिए सर्वजनीन प्रयोग-उपयोग हुआ। गायत्री के 24 अक्षरों में बीज रूप में भारतीय तत्त्व-ज्ञान के समस्त सूत्र सन्निहित है। इस महामंत्र के विविध साधना उपचारों में तपश्चर्या को श्रेष्ठतम आधार कहा जा सकता है। उनमें बाल, वृद्ध, रोगी, नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित सभी के लिए छोटे-बड़े प्रयोग मौजूद हैं। सरल से सरल और कठिन से कठिन ऐसे विधानों का उल्लेख है, जिन्हें हर स्थिति का व्यक्ति अपनी-अपनी स्थिति एवं पात्रता के अनुरूप अपना सकता है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना के दो पक्ष है। एक गायत्री, दूसरी सावित्री अथवा कुंडलिनी। गायत्री की प्रतिभाओं में पाँच मुख चित्रित किए गए हैं। यह मानवी-चेतना के पाँच आवरण हैं। जिनके उतरते चलने पर आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पाँच कोश-पाँच खजाने भी कह सकते हैं। अंतःचेतना में एक-से-एक बड़ी-चढ़ी विभूतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं इन्हें जगाने पर अंतर्जगत के पाँच देवता जग पड़ते हैं और उनकी विशेषताओं के कारण मानवी सत्ता देवोपम स्तर पर पहुँची हुई, जगमगाती हुई, दृष्टिगोचर होने लगती है। चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगे उत्पन्न करने का कार्य, प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान यह पाँच प्राण करते हैं। इन्हें पाँच कोश कहा जाता है। शरीर पाँच तत्त्व देवताओं के समन्वय से बना है। अग्नि, वरुण, वायु, अनंत और पृथ्वी यह पाँच तत्त्व, पाँच देवता ही काय कलेवर का और सृष्टि में बिखरे पड़े दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है। इस विज्ञान को तत्त्व साधना अथवा ‘प्रयंत्र विज्ञान’ कहा गया है। पंचकोश उपासना से चेतना पंचक और पदार्थ पंचक के दोनों ही क्षेत्रों को समर्थ परिष्कृत बनाने का अवसर मिलता है। सावित्री साधना यही है। इसका देवता सविता है। सावित्री और सरिता का युग्म है। इस उपासना में सूर्य को प्रतीक और तेजस्वी, परब्रह्म को, सविता को इष्ट मान कर उस स्रोत से ओजस्विता, तेजस्विता और मनस्विता आकर्षित की जाती है। इस क्षेत्र की तपश्चर्या से उस ब्रह्मतेजस् की प्राप्ति होती है, जो इस जड़ चेतन जगत् की सर्वोपरि शक्ति है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना की दूसरी प्रक्रिया है-कुंडलिनी। इसे जड़ और चेतन को परस्पर बांधे रहने वाली सूत्र श्रृंखला कह सकते हैं। प्रकारांतर से यह प्राण प्रवाह है जो व्यष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का संचालन करता है। नर और नारी अपनी जगह पर अपनी स्थिति में समर्थ होते हुए भी अपूर्ण हैं। इन दोनों को समीप लाने और घनिष्ठ बनाने में एक अविज्ञात चुंबकीय शक्ति काम करती रहती है। इसी के दवाब से युग्मों का बनाना और प्रजनन क्रम चलना संभव होता है। उदाहरण के लिए इस नर और नारी के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने वाले चुंबकीय धारा प्रवाह को कुंडलिनी की एक चिनगारी कह सकते हैं। प्रकृति और पुरुष को घनिष्ठ बनाकर उनसे सृष्टि संचार की विभिन्न हलचलों का संरजाम खड़ा करा लेना इसी ब्रह्मांडव्यापी कुंडलिनी का काम है।
व्यक्ति सत्ता में भी काया और चेतना की घनिष्ठता बनाए रहना और शरीर में लिप्सा, मन में ललक और अंतःकरण में लिप्सा उभारना इसी कुंडलिनी महाशक्ति का काम है। जीव की समस्त हलचलें आकांक्षा, विचारणा और सक्रियता के रूप में सामने आती हैं। इनका सृजन उत्पादन कुंडलिनी ही करती है, अन्यथा जड़ तत्वों में पुलकन कहां ? निर्विकार आत्मा में उद्विग्नता आतुरता कैसी ? दृष्य जगत की समस्त हलचलों के बीच जो बाजीगरी काम कर रही है, उसे अध्यात्म की भाषा में माया कहा गया है। साधना क्षेत्र में इसी को कुंडलिनी कहते हैं। इसे विश्व हलचलों का मानवी गतिविधियों का-उद्गम मर्मस्थल कह सकते हैं। यह प्रमुख कुंजी मास्टर के, हाथ आ जाने पर प्रगति का द्वार बंद किए रहने वाले सभीताले खुलते चले जाते हैं। इस स्वेच्छाचारिणी महाशक्ति को वशवर्ती बनाने वाले साधक आत्मसत्ता पर नियंत्रण करने और जागतिक हलचलों को प्रभावित करने में समर्थ हो सकते हैं। गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में ऋतंभरा प्रज्ञा उभारने के लिए पंचकोशी उपासना प्रक्रिया काम में आती है और प्रत्यक्ष सत्ता को प्रखर बनाने के लिए कुंडलिनी साधना की कार्य पद्धति काम में लाई जाती है। ब्रह्मवर्चस् साधना में इन दोनों का ही समावेश किया गया है। साधकों को इन साधनाओं में प्रविष्ट होने के पूर्व उनका स्वरूप एवं तत्त्व ज्ञान भी भली प्रकार हृदयगंम कर लेना चाहिए।
संकल्पित पुरश्चरणों से प्रमुख चेतना उभरती है और फलतः साधक ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी, बनता है। साहस और पराक्रम की अभिवृद्धि आत्मिक एवं भौतिक क्षेत्र में अनेकानेक सफलताओं का पथ प्रशस्त करती है। विशेष प्रयोजनों के लिए किए गए पुरश्चरणों की सफलता इसी संकल्प शक्ति के सहारे उपलब्ध होती है, जिसे प्रतिज्ञाबद्ध अनुशासित एवं आत्मनिग्रह के विभिन्न नियमोपनियमों के सहारे संपन्न किया जाता है।
नित्यकर्म को स्कूलों की प्राथमिक और पुरश्चरणों को माध्यमिक शिक्षा कहा जा सकता है। जूनियर हाईस्कूल, मैट्रिक हायर सेकेंड्री का प्रशिक्षण माध्यमिक स्तर का समझा जाता है। इसके उपरांत कालेज की, विश्वविद्यालय की पढ़ाई का क्रम आरंभ होता है। इसे उच्चस्तरीय साधना कह सकते हैं। योग और तप इस स्तर के साधकों को क्रियान्वित करने होते हैं। योग में जीव चेतना को ब्रह्म चेतना से जोड़ने के लिए स्वाध्याय मनन से लेकर ध्यान धारणा तक के अवलंबन अपनी मनःस्थिति के अनुरूप अपनाने पड़ते हैं। विचारणा, भावना एवं आस्था की प्रगाढ़ प्रतिष्ठापना इसी आधार पर संभव होती है।
आत्मिक प्रगति के लिए प्रचलित अनेकानेक उपायों और विधानों में गायत्री विद्या अनुपम है। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने, आत्मविज्ञानियों ने प्रधानतया इसी का अवलंबन लिया है और सर्वसाधारणा को इसी आधार को अपनाने का निर्देश दिया है। भारतीय धर्म के दो प्रतीक हैं। शिखा और यज्ञोपवीत। दोनों को गायत्री की ऐसी प्रतिमा कहा जा सकता है, जिसकी प्रतीक धारणा को अनिवार्य धर्म चिह्न बताया गया है। मस्तिष्क दुर्ग के सर्वोच्च शिखर पर गायत्री रूपी विवेकशीलता की ज्ञान ध्वजा ही शिखा के रूप में प्रतिष्ठापित की जाती है। यज्ञोपवीत को गायत्री का कर्म, पक्ष, यज्ञ का संकेत कहते हैं। उनकी तीन लड़ें, गायत्री के तीन चरण और नौ धागे इस महामंत्र के नौ शब्द कहे गये हैं। उपासना में संध्या-वंदन नित्य-धर्म है। वह गायत्री के बिना संपन्न नहीं होता। चारों वेद भारतीय धर्म और संस्कृति के मूल आधार है और उन चारों की जन्मदात्री वेदमाता गायत्री है। वेदों की व्याख्या शास्त्र-पुराणों में हुई है। इस प्रकार आर्षवाङ्मय के सारे कलेवर को ही गायत्रीमय कहा जा सकता है। गायत्री और भारतीय धर्म संस्कृति को बीज और वृक्ष की उपमा दी जा सकती है।
यह सर्वसाधारण के लिए भारतीय संस्कृति के, विश्व मानवता के प्रत्येक अनुयायी के लिए सर्वजनीन प्रयोग-उपयोग हुआ। गायत्री के 24 अक्षरों में बीज रूप में भारतीय तत्त्व-ज्ञान के समस्त सूत्र सन्निहित है। इस महामंत्र के विविध साधना उपचारों में तपश्चर्या को श्रेष्ठतम आधार कहा जा सकता है। उनमें बाल, वृद्ध, रोगी, नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित सभी के लिए छोटे-बड़े प्रयोग मौजूद हैं। सरल से सरल और कठिन से कठिन ऐसे विधानों का उल्लेख है, जिन्हें हर स्थिति का व्यक्ति अपनी-अपनी स्थिति एवं पात्रता के अनुरूप अपना सकता है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना के दो पक्ष है। एक गायत्री, दूसरी सावित्री अथवा कुंडलिनी। गायत्री की प्रतिभाओं में पाँच मुख चित्रित किए गए हैं। यह मानवी-चेतना के पाँच आवरण हैं। जिनके उतरते चलने पर आत्मा का असली रूप प्रकट होता है। इन्हें पाँच कोश-पाँच खजाने भी कह सकते हैं। अंतःचेतना में एक-से-एक बड़ी-चढ़ी विभूतियाँ प्रसुप्त अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं इन्हें जगाने पर अंतर्जगत के पाँच देवता जग पड़ते हैं और उनकी विशेषताओं के कारण मानवी सत्ता देवोपम स्तर पर पहुँची हुई, जगमगाती हुई, दृष्टिगोचर होने लगती है। चेतना में विभिन्न प्रकार की उमंगे उत्पन्न करने का कार्य, प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान यह पाँच प्राण करते हैं। इन्हें पाँच कोश कहा जाता है। शरीर पाँच तत्त्व देवताओं के समन्वय से बना है। अग्नि, वरुण, वायु, अनंत और पृथ्वी यह पाँच तत्त्व, पाँच देवता ही काय कलेवर का और सृष्टि में बिखरे पड़े दृश्यमान पदार्थों और अदृश्य प्रवाहों का संचालन करते हैं। समर्थ चेतना इन्हें प्रभावित करती है। इस विज्ञान को तत्त्व साधना अथवा ‘प्रयंत्र विज्ञान’ कहा गया है। पंचकोश उपासना से चेतना पंचक और पदार्थ पंचक के दोनों ही क्षेत्रों को समर्थ परिष्कृत बनाने का अवसर मिलता है। सावित्री साधना यही है। इसका देवता सविता है। सावित्री और सरिता का युग्म है। इस उपासना में सूर्य को प्रतीक और तेजस्वी, परब्रह्म को, सविता को इष्ट मान कर उस स्रोत से ओजस्विता, तेजस्विता और मनस्विता आकर्षित की जाती है। इस क्षेत्र की तपश्चर्या से उस ब्रह्मतेजस् की प्राप्ति होती है, जो इस जड़ चेतन जगत् की सर्वोपरि शक्ति है।
उच्चस्तरीय गायत्री उपासना की दूसरी प्रक्रिया है-कुंडलिनी। इसे जड़ और चेतन को परस्पर बांधे रहने वाली सूत्र श्रृंखला कह सकते हैं। प्रकारांतर से यह प्राण प्रवाह है जो व्यष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का संचालन करता है। नर और नारी अपनी जगह पर अपनी स्थिति में समर्थ होते हुए भी अपूर्ण हैं। इन दोनों को समीप लाने और घनिष्ठ बनाने में एक अविज्ञात चुंबकीय शक्ति काम करती रहती है। इसी के दवाब से युग्मों का बनाना और प्रजनन क्रम चलना संभव होता है। उदाहरण के लिए इस नर और नारी के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने वाले चुंबकीय धारा प्रवाह को कुंडलिनी की एक चिनगारी कह सकते हैं। प्रकृति और पुरुष को घनिष्ठ बनाकर उनसे सृष्टि संचार की विभिन्न हलचलों का संरजाम खड़ा करा लेना इसी ब्रह्मांडव्यापी कुंडलिनी का काम है।
व्यक्ति सत्ता में भी काया और चेतना की घनिष्ठता बनाए रहना और शरीर में लिप्सा, मन में ललक और अंतःकरण में लिप्सा उभारना इसी कुंडलिनी महाशक्ति का काम है। जीव की समस्त हलचलें आकांक्षा, विचारणा और सक्रियता के रूप में सामने आती हैं। इनका सृजन उत्पादन कुंडलिनी ही करती है, अन्यथा जड़ तत्वों में पुलकन कहां ? निर्विकार आत्मा में उद्विग्नता आतुरता कैसी ? दृष्य जगत की समस्त हलचलों के बीच जो बाजीगरी काम कर रही है, उसे अध्यात्म की भाषा में माया कहा गया है। साधना क्षेत्र में इसी को कुंडलिनी कहते हैं। इसे विश्व हलचलों का मानवी गतिविधियों का-उद्गम मर्मस्थल कह सकते हैं। यह प्रमुख कुंजी मास्टर के, हाथ आ जाने पर प्रगति का द्वार बंद किए रहने वाले सभीताले खुलते चले जाते हैं। इस स्वेच्छाचारिणी महाशक्ति को वशवर्ती बनाने वाले साधक आत्मसत्ता पर नियंत्रण करने और जागतिक हलचलों को प्रभावित करने में समर्थ हो सकते हैं। गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में ऋतंभरा प्रज्ञा उभारने के लिए पंचकोशी उपासना प्रक्रिया काम में आती है और प्रत्यक्ष सत्ता को प्रखर बनाने के लिए कुंडलिनी साधना की कार्य पद्धति काम में लाई जाती है। ब्रह्मवर्चस् साधना में इन दोनों का ही समावेश किया गया है। साधकों को इन साधनाओं में प्रविष्ट होने के पूर्व उनका स्वरूप एवं तत्त्व ज्ञान भी भली प्रकार हृदयगंम कर लेना चाहिए।
पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
गायत्री-शक्ति और गायत्री-विद्या को भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान दिया
गया है। उसे वेदमाता-भारतीय धर्म और संस्कृति की जननी उद्गम-गंगोत्री कहा
गया है। इस चौबीस अक्षर के छोटे से मंत्र के तीन चरण है। ॐ एवं तीन
व्याहृतियों वाला चौथा चरण है। इन चारों चरणों का व्याख्यान चार वेदों में
हुआ है। वेद भारतीय तत्त्वज्ञान और धर्म अध्यात्म के मूल है। गायत्री
उपासना की भी इतनी ही व्यापक एवं विस्तृत परिधि है।
गायत्री माता के आलंकारिक चित्रों, प्रतिमाओं में एक मुख-दो भुजाओं का चित्रण है। कमंडलु और पुस्तक हाथ में है। इसका तात्पर्य इस महाशक्ति को मानवता की उत्कृष्ट आध्यात्मिकता की प्रतिमा बनाकर उसे मानवी आराध्या के रूप में प्रस्तुत करना है। इसकी उपासना के दो आधार है-ज्ञान और कर्म। पुस्तक से ज्ञान का और कंमडलु जल से कर्म का उद्बोधन कराया गया है। यही वेदमाता है। उसी को विश्व-माता की संज्ञा दी गई है। सर्वजनीन और सर्वप्रथम इसी उपास्य को मान्यता दी गई है।
गायत्री माता के आलंकारिक चित्रों, प्रतिमाओं में एक मुख-दो भुजाओं का चित्रण है। कमंडलु और पुस्तक हाथ में है। इसका तात्पर्य इस महाशक्ति को मानवता की उत्कृष्ट आध्यात्मिकता की प्रतिमा बनाकर उसे मानवी आराध्या के रूप में प्रस्तुत करना है। इसकी उपासना के दो आधार है-ज्ञान और कर्म। पुस्तक से ज्ञान का और कंमडलु जल से कर्म का उद्बोधन कराया गया है। यही वेदमाता है। उसी को विश्व-माता की संज्ञा दी गई है। सर्वजनीन और सर्वप्रथम इसी उपास्य को मान्यता दी गई है।
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- ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
- पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
- गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
- साधना की क्रम व्यवस्था
- पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
- कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
- ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
- दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
- ध्यान भूमिका में प्रवेश
- पंचकोशों का स्वरूप
- (क) अन्नमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ख) प्राणमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ग) मनोमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (घ) विज्ञानमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ङ) आनन्दमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
- कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
- जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
- चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
- आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
- अंतिम चरण-परिवर्तन
- समापन शांति पाठ
अनुक्रम
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
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